कहते हैं मनुष्य प्रकृति के समस्त जीवों में श्रेष्ठ है । मनुष्य ब्रह्मा की अंतिम संतान है । घर का छोटा यों भी सबसे लाड़ला होता ही है । संभवतः इसी लाड़ के परिणामस्वरूप ही ब्रह्मा ने मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान की और उसे एक सुखद जीवन मिला । मनुष्य के प्रति उनकी सबसे बड़ी देन रही दिमाग यानी चिंतन-शक्ति । उसी के बलबूते पर वह क्रमशः अपना विकास करता गया । मानव-सभ्यता की इस विकास-यात्रा में नद-नदी की अहम भूमिका रही । दुनिया की समस्त सभ्यताएँ मूलतः नदी-केन्द्रिक हैं । इतिहास साक्षी है कि भारत की सिंधु सभ्यता का विकास सिंधु नद के तट पर हुआ । भारतभूमि में नद-नदियों के साथ धार्मिक मान्यताओं का संबंध अति प्राचीन है । यहाँ नदी को माता कहा जाता है, देवी का ज्ञान किया जाता है । धार्मिक विश्वास सभ्यता को और अधिक संपन्न बनाता है। सिंधु नद का उद्गम-स्थल है पावन हिमालय अर्थात् शिवजी का निवास-स्थल । वैदिक युग से ही यह नद प्रसिद्ध है । शास्त्र के अनुसार भी इस नद का पानी अत्यंत लाभकारी है । यह सिंधु का आशीर्वाद ही था कि इसके तट पर रहनेवाले लोगों की जीवन-प्रणाली का एक उच्च मानदंड होता था। ईंट से घर बनाना, सुव्यवस्थित रास्ते और नालियाँ, सामुहिक स्नानागार, फसल का भंडार, कुँआ, खेती-बाड़ी, जानवरों का पालना, मूर्ति बनाना, यातायत- व्यवस्था के रूप में नाव और बैलगाड़ी का व्यवहार, बर्तन बनाना, अलंकार बनाना, कपड़ा बुनना, मुद्रा का व्यवहार, विनिमय-प्रथा का प्रचलन, पेड़ एवं जानवरों की पूजा, शिल्प-कला आदि सिंधु सभ्यता के सांस्कृतिक जीवन की संपन्नता के परिचायक हैं ।