1. डॉ॰ मालविका शर्मा- नमस्कार सर। आज आपसे आपके जीवन और कर्म के बारे में कुछ बातें करने आयी हूँ।
गोलोक चन्द्र वैश्य- नमस्कार।आपका स्वागत है। जितना हो सके मैं बताने का प्रयास करूंगा।
2. डॉ॰ मालविका शर्मा– जहाँ तक मेरी जानकारी है, आपने एक छोटे से गाँव से आकार यहाँ तक का लक्ष्य तय किया है। वहाँ से आकर कैसे आप हिन्दी के अथक सेवक बने?
गोलोक चन्द्र वैश्य- सही कहा। हमारे पिताजी कामरूप जिले के दलिबारी गाঁव के भूमिहीन किसान थे। हम दो भाई थे और हमारी पाँच बहनें थीं। हम सभी कृषि के काम में माँ और पिता जी की मदद करते थे। हमारे घर में कर्म ही धर्म था, पढ़ना जरूरी नहीं माना गया था। हम दोनों भाइयों ने हल चलाने में बचपन से ही पिता जी का साथ दिया था। सुबह उठकर हल लेकर हम दोनों पिता जी के साथ खेत जाया करते थे। खेत के पास से गुजरनेवाली रेल हमें स्कूल जाने के समय का संदेश दे जाती थी। उस रेल की आवाज सुनते हम हल छोड़ घर की ओर भागते थे। खाने के लिए माँ कुछ न कुछ तैयार रखती थीं। उनमें से कुछ मुँह में डालकर फिर स्कूल के लिए दौड़ते। स्कूल जाने को लेकर घर से कुछ पाबंदी नहीं थी। पर मुझे स्कूल जाना अच्छा लगता था। माँ भी मुझे शिक्षित देखना चाहती थीं। मैं अपने भाई के साथ शुवालकुछि, आमिनगाঁव, पांडु, चेचामुख, पलाशबारी, मालिगाঁव, आदि के बाज़ारों में साग-सब्जी, बैंगन, मुली, आलू, गोभी, टमाटर आदि विभिन्न सामान बेचने जाता था। अक्सर शनिवार को हमें स्कूल छोड़कर समान बेचने बाजार जाना पड़ता था। घर के सदस्यों को जीवित रखने के लिए हमें ऐसे ही काम करना पड़ता था। पर नियति की इच्छा कुछ ओर ही थी और उस पर मेरे कर्म का साथ मिला।