1. अकेले की मुक्ति संभव नहीं(आलेख) ✍ मधु कांकरिया

जब जब स्त्री मुक्ति की बात आती है, जेहन में कई स्त्रियाँ कौंध जाती है। खेत खलिहान में काम करती स्त्री,पीठ पर बच्चा, हाथ में कुदाल लिए आदिवासी स्त्री, घरों में चौका बर्तन माँजती स्त्री। तसले में ईंट, गारा, पत्थर धोती स्त्री, तो समुद्र में जाल फेंकती स्त्री। खायी पीयी अघाई उच्च वर्गीय स्त्री। रीति-रिवाजों और मर्यादाओं में बंधी शहरी मध्यवर्गीय स्त्री। विदेश में रहती भारतीय स्त्री ? विदेशी स्त्री? सब तरह की स्त्री जेहन में कौंध जाती है। यह कौंध इतनी बढ़ गयी है कि जहाँ भी जाती हूँ, हर जगह यही टटोलती हूँ कि स्त्री कैसे जी रही है ? कितनी  आज़ाद है ?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *