उपन्यास का जन्म ही यथार्थ की अभिव्यक्ति की पीड़ा से हुआ है। यथार्थवाद, आधुनिकता और उपन्यास एक दूसरे से आत्मवत् जुड़े हुए हैं । इसीलिए उपन्यास को आधुनिकता की प्रतिनिधि विधा कहा गया और उसे महाकाव्य से समानान्तर सम्मान मिला । यह बात और है कि साधक कवियों के संकल्प के बूते महाकाव्य ने जो असाधारण शिखरत्व हासिल किया, वैसी ऊँचाई उपन्यास हासिल न कर सका। टॉलस्टॉय, गोर्की, चेखव, शोलोखोव, बाल्जाक, मोपांस, कुप्रिन, अल्वेर कामू, लूशून, शरत्चन्द की कीमत को आज साहित्य का कौन सा सच्चा प्रेमी नहीं जानता ? परन्तु जीवन, समाज, व्यक्ति, व्यवस्था और मानव चरित्र की संरचना को खोलने में और उसे सशक्त अंदाज में प्रस्तुत करने में जो कामयाबी महाकाव्य ने हासिल की, उपन्यास ने वैसी नहीं। कहना जरूरी है कि उपन्यास के शिखरत्व और संपूर्णता की यात्रा अभी भी अधूरी है। वह टॉलस्टॉय, प्रेमचन्द और गोर्की से भी पूरी नहीं हुई है। जिस दिन उपन्यास अपने महान आकर्षण में महाकाव्य की जगह ले लेगा और अपनी पंक्ति-दर-पंक्ति में हूबहू उपन्यास महाकाव्य जैसा मानसिक, भावात्मक, वैचारिक आनंद देने लगेगा, उपन्यास की यात्रा सम्पूर्ण हो जाएगी।